Sunday, April 22, 2012

अब कुछ कठोर निर्णय ले मनमोहन सरकार

महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। घोटालों की बात करें, तो संप्रग सरकार-दो ने घोटालों के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले हैं। पार्टी और सरकार के भीतर चल रहे विरोध को मनमोहन सिंह भी अच्छी तरह जानते हैं, पर वे जान-बूझकर चुप हैं। उनकी यह चुप्पी देश को गर्त में धकेलने का काम कर रही है। क्या देश को इस संकट से मुक्ति मिलेगी? क्या सरकार दबाव में आए बिना देशहित के कार्य कर पाएगी? शायद नहीं, क्योंकि इसके लिए जिस मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसका सरकार और उसके नुमाइंदों का दूर तक वास्ता नहीं है। ममता, मुलायम, मायावती, करुणानिधि, शरद पवार जैसे सहयोगियों से हमेशा दबकर काम करने की मजबूरी ने देश को राजनीतिक इतिहास की सबसे कमजोर और भ्रष्ट सरकार दी है।
अच्छा तो यह होता कि प्रधानमंत्री एक बार दो टूक शब्दों में सहयोगियों को चेतावनी दे देते, पर लगता है कि उन्हें भी दबाव में सरकार चलाने की आदत-सी हो गई है। फिलहाल, कोई भी राजनीतिक दल देश में मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। ऐसे में सरकार को अपने सहयोगियों के रुख के प्रति कुछ कठोर निर्णय लेने होंगे, ताकि उसकी बची-खुची इज्जत और तार-तार न हो। अब जबकि बजट सत्र चल रहा है और सरकार सहयोगियों के आगे लगभग हार मानती नजर आ रही है, प्रधानमंत्री सहयोगी दलों के साथ बेहतर समन्वय स्थापित करने हेतु हफ्ते में तीन बार बैठक करने की बात कर रहे हैं। इसके लिए एक समन्वय समिति बनाने की प्रक्रिया चल रही है। फिर, प्रधानमंत्री की बेबसी का आलम तो देखिए कि उन्हें हर फैसले के लिए 10 जनपथ का मुंह ताकना पड़ता है। ऐसे में समझा जा सकता कि देश में सुशासन की स्थिति क्या होगी? देश में कांग्रेस की बदहाल स्थिति को देखते हुए प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा है कि वे सहयोगियों के प्रति सख्त रुख अपनाएं, ताकि देश को एक मजबूत सरकार मिल सके।